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कर्जमुक्त कंपनियों ने 50 प्रतिशत तक का किया इजाफा।

टॉप-15 नामों में सबसे ऊपर नाम एचडीएपसी एएमसी और रिलायंस निपॉल

मौजूदा समय में भारतीय समाज में कर्ज से दूरी बनाए रखने का चलन जोर पकड़ रहा है। बीते साल में जहां कर्ज के बोझ के तले दबी कई कंपनियां जूझती नजर आईं, वहीं निवेशकों ने इन कंपनियों को छिटक कर कर्जमुक्त कंपनियों पर दांव खेलने का फैसला किया। कर्ज से दूरी बनाने की वजह से कई कंपनियों के शेयरों ने शानदार प्रदर्शन किया। कर्जमुक्त नजर आने वाली कंपनियों ने साल 2019 में 122 फीसदी तक छलांग लगाई। टॉप 15 कर्जमुक्त कंपनियों ने निवेशकों को दौलत में 50 फीसदी तक का इजाफा किया।

इस सूची में रिलायंस निपॉन लाइफ एसेट मैनेजमेंट, एचडीएफसी एएमसी, एस्ट्राजेनेका फार्मा, इंडिया, इंफो एज (इंडिया), एबॉट इंडिया, वर्लपूल ऑफ इंडिया, डॉ. लाल पैथलैब्स, एचडीएफसी लाइफ इंश्योरेंस, एसबीआई लाइफ इंश्योरेंस, इंद्रप्रस्थ गैस, एमसीएक्स, बाटाट इंडिया और अवंती फीड्स शामिल रहे।

विश्लेषकों का मानना है कि अर्थव्यवस्था के मुश्किल हालातों और कारोबार के कठिन दौर में इन कंपनियों का प्रदर्शन आगे भी बेहतर रहने वाला है। प्रभुदास लीलाधर के सीईओ पीएमएस प्रमुख अजय बोड़के ने कहा कि कम कर्ज वाली कंपनिया ही निवेशकों को आकर्षित करेंगी।

विश्लेषकों की राय

टॉप-15 नामों में सबसे ऊपर नाम एचडीएपसी एएमसी और रिलायंस निपॉल लाइफ एएमसी का रहा, जिन्होंने निवेशकों की दौलत दोगुना कर दी। अभी भी 13 विश्लेषक एचडीएफसी एएमसी को ‘होल्ड’ करने की सलाह दे रहे हैं। सिर्फ दो विश्लेषकों ने इसे बेचने या कमजोर प्रदर्शन करने की सलाह दी है।

इसी तरह, 10 विश्लेषकों ने रिलायंस निपॉन एसेट मैनेजमेंट कंपनी को खरीदने की सालह दी है, पांच को इसके शानदार प्रदर्शन की उम्मीद है, जबकि तीन ने होल्ड करने के लिए कहा है। केडिया सिक्योरिटीज के विजय केडिया का मानना है कि कर्जमुक्त कंपनियों में निवेश फायदेमंद रहता है।

कर्जमुक्त होना ही नहीं ग्रोथ भी जरूरी

सिर्फ कर्जमुक्त होना ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ ग्रोथ भी जरूरी है. कर्ज बुरी बात नहीं है, बशर्ते उससे 10 से 20 फीसदी तक की ग्रोथ आ रही होग। मैं ऐसी कंपनियों को पंसद करूंगा और शून्य ग्रोथ वाली कर्जमुक्त कंपनी से दूरी बनाउंगा।

केडिया ने कहा कि कर्ज वाजिब स्तर पर होना चाहिए ताकि कंपनी उसे समय रहते चुका सके. बकौल केडिया, “कंपनी का नकद प्रवाह बेहतरीन होना चाहिए ताकि वह अपना ब्याज चुका सके। जिन कंपनियों को डेट-टू-इक्विटी अनुपात अधिक होना है, वे कमजोरी के एक ही दौर में फ्लॉप हो जाती हैं।”